फिरोजाबाद। धर्म सभा को संबोधित करते हुए आचार्यश्री विवेकसागर महाराज ने कहा कि त्याग कितना बड़ा ही मुश्किल काम है। त्याग में इच्छाओं को रोकना यही पुण्यात्म साधन है। पर्व पर्युषण भी इसलिए आते हैं कि हमें त्याग करना है। जो चाहने की इच्छा है उसी का नाम धर्म है। इस जानने की इच्छा में जिसने भी अपने स्वरुप को जानने का प्रयास किया है वे जीव ही अपने जीवन में कुछ कर सकते हैं। जिसने स्वरुप को जानने का प्रयास नहीं किया है वे नल के नीचे रखे उल्टे घड़े के समान खाली हैं। जिसको प्रभु के दर्शन नसीब नहीं होते हैं तो उस जीव को व्याकुलता हो जाती है। जैसी व्याकुलता मछली को पानी के बिना होती है वैसी ही व्याकुलता उस जीव को हो जाती है। जिसका परमात्मा के प्रति श्रद्धा का भाव होता है। जो दर्शन पूजन ने करता उसके व्रत, नियम, संयम सब की सब व्यर्थ हैं। धर्म वो है जिसकी शुरुआत कभी नहीं हो सकती। ये धर्म अनादिकालिन है। धर्म की व्यवस्था हमारे संस्कारों, विचारों से होती है। धर्म से अपेक्षा करने के लिए कषायों की अपेक्षा करनी पड़ेगी। अपने जीवन में पुण्य को बढ़ाने के लिए श्रद्धा को बढ़ाना होगा। जैसी श्रद्धा होगी वैसा पुण्य होगा और जितना प्रबल पुण्य होगा उतनी दृढ़ श्रद्धा होगी। दूध से दही जमाना सहज और सरल है लेकिन दही से मक्खन और मक्खन से घी निकालने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है और सारे साधन जुटाने पड़ते हैं तभी जाके घी निकलता है। वैसे ही जब तक हम कषाय से मुक्त नहीं होंगे तब तक संसार से मुक्त नहीं होंगे। संसार में सब कुछ अनित्य अशरण है और केवल धर्म के सिवा कुछ भी नित्य स्वरुप नहीं है। इसलिए धर्म में अपनी आस्था को बढ़ाइये संसार के दुखों से मुक्त होइए।

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